देहरादून: हाल के दिनों में राज्य में दो ऐसे प्रसंग सामने आए, जिनमें से एक के कारण नौकरशाही पर नियंत्रण पाने की मंत्रियों की व्यग्रता दिखाई दी तो दूसरे में नौकरशाही की हनक की नुमाइश हुई। उत्तराखंड में नौकरशाही जन्मजात व असाध्य सी दिखने वाली समस्या है। गाहे-बगाहे सरकार के मंत्री नौकरशाही की पीड़ा का प्रदर्शन सार्वजनिक रूप से करते रहे हैं। मुख्यमंत्रियों से शिकायतें भी करते रहे हैं। पिछले कई मुख्यमंत्री खुद भी कई मौकों पर नौकरशाही से पार पाने में असमर्थता प्रकट करते रहे हैं। सरकार किसी भी पार्टी की हो, मुख्यमंत्री कोई भी हो प्रदेश में नौकरशाही निरपेक्ष, निर्लिप्त व निर्विकार भाव से पुष्पित-पल्लवित होती रही। राजनीतिक मौसम के अनुरूप कभी ज्यादा कभी कम, कभी प्रत्यक्ष तो कभी परोक्ष। हाल की दो घटनाओं ने यहां नौकरशाही के सदाबहार विमर्श को तीव्रता प्रदान कर दी है। पहले क्रम पर नई सरकार में शपथ लेने वाले मंत्रियों की पहल का विश्लेषण करना उचित होगा। धामी मंत्रिमंडल में विभागों के बंटवारे के बाद सतपाल महाराज, धन सिंह, सौरभ बहुगुणा ने सचिवों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में प्रविष्टि करने का अपना विधिसम्मत अधिकार मांगा है। नौ सदस्यीय कैबिनेट में अन्य मंत्री भी इससे सहमत बताए जाते हैं। पहली निर्वाचित सरकार में मुख्यमंत्री एनडी तिवारी के कार्यकाल में सचिवों की सीआर विभागीय मंत्री द्वारा लिखे जाने के बाद अंतिम प्रविष्टि के लिए मुख्यमंत्री को भेजी जाती थी।
वर्ष 2008 में इस स्थापित प्रक्रिया को एक शासनादेश के द्वारा परिवर्तित कर विभागीय मंत्रियों को बाइपास कर दिया गया। हालांकि इसमें भी विभागीय मंत्री से टिप्पणी लिए जाने का प्रविधान रखा गया था, लेकिन यह क्रियान्वित नहीं होता है। विधिवत प्रक्रिया अब भी यही है, लेकिन नौकरशाही के पोषकों ने मंत्रियों को पूरी प्रक्रिया से हटाने के लिए एक अवधारणा गढ़ी। बताया गया कि मंत्रियों के पास समय का अभाव रहता है व मुख्यमंत्री सरकार के मुखिया होते हैं इसलिए फाइल मुख्य सचिव के माध्यम से सीधे मुख्यमंत्री को भेजी जाए। इसके बाद से संबंधित फाइलें सीधे मुख्य सचिव को भेजी जाने लगीं। परिणाम यह हुआ कि मंत्री के पास सचिव को जवाबदेह बनाने का एक सशक्त माध्यम लुप्त हो गया। मंत्री हाथ मलते रह गए व सीआर ऊपर ही ऊपर पार होने लगी। इस बार मंत्रियों ने सरकार के शुरुआती दिनों में ही यह विषय मुख्यमंत्री के सामने रख कर उचित कार्य किया है। मंत्रियों की इस पहल का परिणाम क्या होता है, इस पर विषय की गंभीरता को समझने वालों की नजर है।
गत सप्ताह दून मेडिकल कालेज की एक एसोसिएट प्रोफेसर को अल्मोड़ा मेडिकल कालेज से संबद्ध इसलिए कर दिया गया कि उन्होंने सचिव की पत्नी से माफी मांगने से इन्कार कर दिया। घटनाक्रम कुछ इस तरह घटा कि ओपीडी में मरीज देख रही डाक्टर को निर्देश मिला कि वह तुरंत सचिव साहब के बंगले पर जाकर उनकी पत्नी को देखें। डाक्टर लाइन पर लगे मरीजों को छोड़ कर कोठी पर पहुंचीं। इस दौरान कुछ ऐसा हुआ जो साहब की पत्नी ने शान में गुस्ताखी समझा। अस्पताल पहुंचते ही डाक्टर को माफी मांगने की हिदायत दी गई। उन्होंने नहीं मांगी तो शाम तक देहरादून से अल्मोड़ा मेडिकल कालेज से संबद्ध करने का आदेश मिल गया। डाक्टर ने इस अपमान को न सहते हुए त्यागपत्र सौंप दिया। बात जब बढ़ गई तो अगले दिन मुख्यमंत्री ने आदेश पर रोक लगाते हुए अपर मुख्य सचिव को पूरे प्रकरण की जांच सौंप दी।
गौरतलब है कि अब तक सभी मुख्यमंत्री और उनके स्वजन दून अस्पताल आकर उपचार कराते रहे हैं, लेकिन सचिवों के स्वजन को सरकारी डाक्टर घर पर चाहिए और वह भी झुकी कमर के साथ। इस स्तर के अधिकारियों के खिलाफ जांच से लोगों को बड़ी उम्मीदें नहीं रहती हैं। जिनके खिलाफ जांच होती है और जो जांच करते हैं, सभी एक ही कुनबे के होंगे तो परिणाम के बारे में बहुत आश्वस्त नहीं हुआ जा सकता है।