Nirbhik Nazar

भर गया है ज़हर से, संसार जैसे हार खाकर, देखते है लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर…

पी॰ के, परमार

नई दिल्ली: भारत की सनातन जीवन शैली का आधार आध्यात्म है। यहाँ अलग अलग  दर्शन, धर्म और जातियों का संमिश्रण होने से आधुनिकता की दौड़ होते हुए भी सनातन भारतीय जीवन शैली आज भी जीवित है। हमारे पूर्वज मानते थे वसुधैव कुटुंबकम। उनका लक्ष्य था शांति, प्रेम और अहिंसा। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया।सबके सुख और स्वास्थ्य की कामना। यहाँ जीवन एक उत्सव है जहां नाट्य कला और नृत्य कला से आध्यात्म की व्याख्या होती है। हमारा सारा ज्ञान कलाओं के द्वारा परोसा जाता है। धर्म, अर्थ, काम और पुरुषार्थ यहाँ आध्यात्म से संप्रेषित है। रसोई, हस्त-पाद प्रक्षालन से लेकर ब्रह्मांनंद तक एक ही दृष्टि है, तृप्ति की। भूतशुद्धि और मन शुद्धि के प्रयोजन में कला एक मार्ग है। सौंदर्य दृष्टि वाले का आध्यात्मिक प्रवेश इसलिए सरल है।

नाट्य प्रवर्तक पहले रस को संवारता है, फिर श्रोताओं और दर्शकों के ह्रदय में उस रस को संचारित कर उस सौंदर्य में तृप्त करता है। सौंदर्य का परिष्कार जितना हो उतना निखरता है। नाटक की त्रिवर्गात्मिका संचालन में प्रवृति है और धर्म विपरीत से निवृत्ति है। नाटक का परिणाम शांत रस है। यह शांति स्मशान शांति या मंदता नहीं लेकिन तरलित होकर स्वस्थ्य होना है। शांति बाक़ी के आठ रसों की योनि है। गांधीजी के सत्त्याग्रह में टोल्सटोय से ज़्यादा राजा हरिश्चंद्र नाटक की अवधारणा थी।नाटक की शुरुआत में डुगडुगी बजती है और प्रस्तुति होती थी। “चंद्र टले चंदा टले, टले जगत व्यवहार। पर राजा हरिश्चंद्र, न टले सत्य विचार”। पीड़ा के बाद की शांति का अनुभव।

नाटक का रस मन का मैल धो कर शांति पैदा करता है। स्वस्वरूप का प्रथनन होता है और ज्ञान यानि चेतना का विस्तार होता है। अभिनेता जितना बुद्धि कुशल हो उतना सात्विक अभिनय कर पायेगा। उमा या शिव का अभिनय करने से पहले अपने में रही स्त्री – पुरुष को बाहर निकालना पड़ता है। अभिनय हाथ पैर हिलाना नहीं पर अपने inner being की उपलब्धि से स्फुरित करना है। भरत नाट्यशास्त्र पर अभिनव भारती की व्याख्या स्वीकृति पाईं है। रूद्र शिव ने अपने अंगों के विभाजन से जो स्वात्मप्रच्छादन पटु क्रीड़ा रूप त्रिगुणात्मक प्रकृति स्वरूप लिया है, वह तीन गुण नाटक थियेटर का विषय वस्तु बन जायेगा। संकीर्णता का यहाँ स्थान नहीं। यहाँ कमंडल लेकर पलायन नहीं करना है अपितु जीना सीखना है और आनंद से जीना है।

कनिष्क के वक्त हुए नागार्जुन ने जिसने अकाट्य तर्क से कश्मीर में शून्यवाद की स्थापना की थी। सर्वम् शून्यम्… सर्वम् शून्यम्। तब प्रश्न उठा कि बुद्धस्य वचनम् अपि शून्यम्? शिव उपासक दुनियाँ से भागता नही। नकारे होकर बैठा नहीं रहता। नर्तक आत्मा, अंतरात्मा के रंगमंच पर भीतर चेतना में नाटक का मंचन हो रहा है जहां देवों प्रेक्षक इन्द्रियां है; नर्तक से प्रेक्षक तक रस का संचार हो रहा है; उस नाटक में अपना दर्शन करना है।

मलिन सत्व से अपना दर्शन नहीं होता, निर्मल बुद्धि चाहिए जिसे धीषणा कहा गया है। जिसमें सत्व का स्फुरण होता है। जिस तत्व की हमें खोज है वह स्फुरणशील है और अत्यंत सूक्ष्म, फूल की सुगंध से भी पतला है, अतीन्द्रिय है, आंतर परिस्पनदस्य (inner being) है। साधना का हेतु है सत्व शुद्धि और निर्मल बुद्धि।बाहर के और अंदर के साधन (भूत, इन्द्रियां, मन, बुद्धि) को दर्पण की तरह तैयार करना है। निदिध्यासन करना है जिससे सत्व का प्रकाशन हो। विशारद कहा जाता है ऐसी निर्मल बुद्धि वाले को जो अपने शिव स्वरूप का विमर्श करने निपुण है। विशारद शब्द शरद से बना है। शरद का सौंदर्य। वर्षा ऋतु के बादलों द्वारा पृथ्वी को धोये जाने के बाद आती है शरद। मैले जल को छोड़ नदी स्वच्छ निर्मल जल को धारण कर बहती है। इसी शरद के अमावस्या की रात में दीवाली का उत्सव और नये साल का उदय होता है। शरद का संबंध देवी शारदा सरस्वती से है। शुक्ल ही शुक्ल, निर्मल ही निर्मल। शरद में श्वेत पुष्पों से सुशोभित पृथ्वी पर हिमाचल में पार्वती विवाह रचाया जाता है। इसी शरद बुद्धि में सत्व का प्रकाशन करना है।

भारतीय संस्कृति निर्माण में समर्थ है जिस पर सारे भारत का, विश्व का,  मानवता का अधिकार है। अपने स्वरूप में जाग गये फिर हिंसा नहीं होगी। जो सच है वह पाओगे। न मेरा है न तेरा है। जो है तत स्वरूप वह सब का  है। प्राणायाम की बाह्य क्रिया से समाधि तक की सफ़र में शिवता का स्फुरण और शिवभाव के साक्षात्कार की अभिव्यक्ति होती है। यही मोक्ष है। इस मोक्ष की कामना करते हुए जीवन की हर मुश्किल परिस्थितियों का सामना करें और होश खोये बिना आगे बढ़े। समापन करें कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की इस काव्य पंक्तियों के साथ।

गीत गाने दो मुझे तो, वेदना को रोकने को।

चोट खाकर राह चलते, होश के भी होश छूटे;

हाथ जो पाथेय थे, ठाकुरों ने रात लूटे;

कंठ रूकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो।

भर गया है ज़हर से, संसार जैसे हार खाकर;

देखते है लोग लोगों को, सही परिचय न पाकर;

बुझ गई है लौ पृथा की, जल उठो फिर सींचने को।

नोट – लेखक भारतीय प्रशासनिक सेवा के रिटायर्ड आईएएस अधिकारी है

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Author: nirbhiknazar

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