हल्द्वानी: कुमाऊं में होली गायन की परंपरा समृद्ध है। पौष के पहले रविवार से विष्णुपदी होली गाई जाती हैं। इस बार 19 दिसंबर से होली गायन की शुरुआत होगी। राग व तालों पर गाई जाने वाली होली भक्ति, निर्वाण, आध्यात्म व प्रभु आराधना खुद में समेटे है। होली का ऐसा आनंद है कि गायक-श्रोता के बीच कोई फासला नहीं रहता।
पौष की सर्द रात में बैठकी होली की महफिल रंगत घोल देती है। ऐसी रौनक कि ठंड का अहसास भी गायब रहता है। होली हर्ष, उल्लास व ऋतु परिवर्तन का पर्व है। होली को आमतौर पर होलिका व प्रहलाद के प्रसंग से जोड़कर देता जाता है, परंतु होली त्योहार में मनो-विनोद, गीत-संगीत, मिलना, रंग खेलना एक पक्ष है और होलिका दहन दूसरा। होली के त्योहार की अपनी आंचलिकता भी है। इसके संगीत में यह झलकता है। पौष के पहले रविवार से होली के टीके तक चार चरणों में होली गाई जाती है।
ब्रज से कम नहीं कुमाऊं की होली
कुमाऊं का होली गायन लोक एवं शास्त्र पुस्तक में डा. पंकज उप्रेती लिखते हैं कि ब्रज के होली गीतों के नृत्य व गायन स्वरूप का कुमाऊं की होली पर जबरदस्त प्रभाव रहा है। कुमाऊं में होली उत्सव की शुरुआत कब हुई यह तय करना कठिन है। अनुमानत: मध्यकाल में 10वीं व 11वीं सदी से इसका प्रारंभ माना जाता है। गढ़वाल के टिहरी व श्रीनगर में कुमाऊं के लोगों की बसासत और राजदरवार के होने से होली का वर्णन मौलाराम की कविताओं में आता है।
विरासत में मिली होली
10वीं व 11वीं सदी के मध्य मैदानी क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न जन समुदायों का आगमन कुमाऊं में हुआ, जो अपने साथ विरासत में अपनी संस्कृति भी लाए। जब एक स्थान से कोई संस्कृति दूसरे स्थान पर जाती है तो वह धीरे-धीरे वहां की विशेषताओं को खुद में समेटते हुए वहां की हो जाती है। कुमाऊं की होली के संदर्भ में भी यही हुआ। कहा जाता है कि 16वीं सदी में कुमाऊं में होली गायन की परंपरा का प्रारंभ राजा कल्याण चंद के समय हुआ। कुमाऊं में प्रचलित होली गीतों की शैली तो पर्वतीय हो गई, लेकिन भाषा में कुमाऊंनी, गढ़वाली या अन्य स्थानीय बोली के शब्द बहुत कम हैं। अधिकांश होली गीत ब्रज, भोजपुरी, अवधी हैं।
मनोरंजन का साधन रही होली
डा. पंकज उप्रेती कहते हैं कि पूर्व में उत्तराखंड में रास मंडलियां आती रही हैं। दरभंगा, कन्नौज सहित विभिन्न राज्यों से संपर्क रहा है। कैलास मानसरोवर का यात्रा पथ भी उत्तराखंड है। इसलिए भी लोगों का यहां आना-जाना शुरू से रहा। ऐसे में संगीत का आदान-प्रदान होता रहा है। जिसे पहाड़ की होली कहते हैं, ठंड में सामूहिक मनोरंजन का साधन भी थी। इसी कारण तीन माह तक इसका गायन होता है।